अजीत द्विवेदी
भारत में एक बार फिर संसद और सुप्रीम कोर्ट की सर्वोच्चता की बहस छिड़ी है। यह बहस कुछ कुछ वैसी ही है जैसे यह बहस कि, ‘पहले पेड़ आया या बीज’ या ‘पहले अंडा आया या मुर्गी’! इस बहस का कभी कुछ हासिल नहीं होने वाला है। फिर भी इस बहस को समय समय पर चलाया जाता है कि संसद सर्वोच्च है या सुप्रीम कोर्ट? पिछले कुछ समय से यह बात ज्यादा सुनने को मिल रही है कि, ‘संसद सर्वोच्च है’ या ‘देश के लोगों ने सांसदों, विधायकों को चुना है सरकार चलाने के लिए तो सुप्रीम कोर्ट को उसमें दखल नहीं देना चाहिए’ या ‘संसद कानून बनाने लगेगी तो संसद, विधानसभाओं में ताला लगा दिया जाए’ या ‘अब हमारे पास ऐसे जज हैं, जो सरकार चलाएंगे’, आदि, आदि।
सवाल है कि क्या सचमुच न्यायपालिका कानून बना रही है? क्या सचमुच सुप्रीम कोर्ट सरकार को काम नहीं करने दे रहा है और सबसे ऊपर क्या सचमुच संसद सर्वोच्च है और सुप्रीम कोर्ट उसकी सर्वोच्चता का अतिक्रमण कर रहा है?
सबसे पहले इस वास्तविकता को समझ लेने की जरुरत है कि भारत में विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका में से कोई सर्वोच्च नहीं है। संविधान ने शक्तियों के पृथक्करण के मॉन्टेस्क्यू के सिद्धांत के आधार पर इन तीनों के बीच शक्तियों का बंटवारा किया है। सबकी जिम्मेदारी तय है और सबको एक दायरे में काम करना है। यह भी ध्यान रखने की बात है कि भारत में संसदीय शासन प्रणाली को अपनाया गया है लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि संसद सर्वोच्च है।
यह शासन की एक व्यवस्था है, जो संविधान पर आधारित है। असल में भारत में संवैधानिक लोकतंत्र को अपनाया गया है, जिसमें संविधान सर्वोच्च है। सभी अंगों को संविधान के हिसाब से काम करना है और संविधान के प्रावधानों की व्याख्या, उसकी मूल भावना के संरक्षण और उसकी सर्वोच्चता को अक्षुण्ण रखने की जिम्मेदारी सुप्रीम कोर्ट को दी गई है।
जिस समय केशवानंद भारती बनाम केरल सरकार के मामले की बहस चल रही थी उस समय देश के सबसे सम्मानित कानूनविदों में से एक ननी पालखीवाला ने संसद की सर्वोच्चता की दलील को खारिज करने के लिए जो कई तर्क दिए थे उनमे से एक यह तर्क यह भी था कि अगर संसद कानून बना कर लोकसभा का कार्यकाल बढ़ा दे तो कोई क्या करेगा? सोचें, अगर संसद में बहुमत वाली पार्टी कानून बना कर लोकसभा का कार्यकाल 20 साल कर दे तो इससे बचने का क्या रास्ता है?
अगर सरकार कहे कि उसे जनता ने चुना है और उसके हाथ में सारी ताकत दी है इसलिए वह संघीय व्यवस्था को खत्म कर रही है या मौलिक अधिकारों को समाप्त कर रही है तो संविधान को इस हमले से बचाने का क्या रास्ता होगा?
भारत के मामले में ऐसी कोई आशंका निर्मूल नहीं है। आखिर इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगाई थी तो लोकसभा का कार्यकाल छह साल का कर दिया था। ऐसी स्थिति से बचने के लिए ही भारत के संविधान में न्यायिक समीक्षा का प्रावधान रखा गया है। राजनीति शास्त्र और संविधान का अध्ययन करने वालों को पता है कि भारत ने संसदीय प्रणाली ब्रिटेन से अपनाई है लेकिन न्यायिक समीक्षा का प्रावधान अमेरिका से लिया है। भारत में संविधान बनाने वालों ने अनुच्छेद 13, 32, 131, 136, 143, 226 और 246 के तहत न्यायिक समीक्षा का अधिकार सुप्रीम कोर्ट को दिया है।
संविधान निर्माताओं की मंशा पूरी तरह से स्पष्ट है। उन्होंने अनुच्छेद 13 में लिखा कि संसद या विधानसभा से बनाया गया कोई कानून अगर मौलिक अधिकारों के खिलाफ है तो वह अमान्य और अवैध होगा। इसके बाद अनुच्छेद 32 में लिखा कि मौलिक अधिकारों के हनन की स्थिति में कोई भी व्यक्ति सुप्रीम कोर्ट जा सकता है। इसी तरह अनुच्छेद 226 में लिखा है कि मौलिक अधिकार के हनन की स्थिति में कोई व्यक्ति हाई कोर्ट जा सकता है। ऐसे ही अनेक अनुच्छेद हैं, जिनमें कहीं केंद्र व राज्य के विवाद की स्थिति में या संविधान के ‘बुनियादी ढांचे’ पर हमले की स्थिति में सुप्रीम कोर्ट के दखल देने की व्यवस्था है। संविधान बनाने वालों ने अनुच्छेद 368 के जरिए संसद को यह अधिकार दिया कि समय के साथ अप्रासंगिक होते जाने वाले संवैधानिक प्रावधानों में वह संशोधन करे लेकिन उसे संविधान को नष्ट करने का अधिकार नहीं दिया गया है।
अगर अदालत को लगता है कि संशोधन के नाम पर संविधान को नष्ट करने का प्रयास किया जा रहा है या संवैधानिक प्रावधानों का अनुपालन उनकी मूल भावना के हिसाब से नहीं किया जा रहा है तो वह दखल देकर संविधान की मूल भावना को प्रस्थापित करने का कदम उठा सकती है।
तमिलनाडु के राज्यपाल के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यही काम किया। यह सही है कि संविधान में इस बात का जिक्र नहीं किया गया है कि विधानसभा से पास किए गए किसी विधेयक को राज्यपाल को कितने समय के अंदर मंजूरी देनी है। लेकिन क्या इसका यह मतलब है कि राज्यपाल अनंतकाल तक विधानसभा से पास विधेयक को बिना मंजूरी दिए अपने पास रख सकते हैं? इसका मतलब तो यह होगा कि राज्यपाल चाहे तो वह किसी सरकार को काम ही नहीं करने दे! वह सरकार के सारे विधेयकों को अपने पास लंबित रखे और कामकाज ठप्प कर दे! इस तरह तो केंद्र सरकार राज्यपालों का इस्तेमाल करके राज्यों की सरकारों को पंगु कर सकती है।
आजादी के बाद लंबे समय तक इस मामले में सुधार की जरुरत नहीं महसूस हुई या सुप्रीम कोर्ट को दखल देने की जरुरत नहीं पड़ी तो उसका कारण यह था कि किसी भी राज्यपाल ने तीन तीन साल तक विधेयक लटका कर नहीं रखे। जब राज्यपालों ने भाजपा विरोधी सरकारों को परेशान करने के लक्षित उद्देश्य से उनके विधेयकों को कई कई बरस तक लंबित रखा तब सुप्रीम कोर्ट को दखल देना पड़ा और विधेयकों की मंजूरी के लिए एक समय सीमा निश्चित करनी पड़ी। जो लोग सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से नाराज हैं उन्हें पहले इस बात पर सोचना चाहिए कि ऐसी नौबत क्यों आई?
यह भी कहा जा रहा है कि राष्ट्रपति ही सुप्रीम कोर्ट के जजों और चीफ जस्टिस को नियुक्त करता है तो सुप्रीम कोर्ट राष्ट्रपति को कैसे निर्देश दे सकता है कि उसे कितने समय में बिल की मंजूरी देनी चाहिए? यह बहुत बचकाना और नासमझी भरा तर्क है। पहली बात तो यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति को निर्देश नहीं दिया है, बल्कि केंद्र सरकार को दिया है क्योंकि संविधान के मुताबिक राष्ट्रपति को केंद्रीय मंत्रिमंडल की सलाह पर ही काम करना होता है। ध्यान रहे राष्ट्रपति केंद्रीय मंत्रिमंडल की सलाह पर ही जजों की नियुक्ति को मंजूरी देता है।
दूसरी बात यह है कि भारत में जो शासन व्यवस्था बनी है उसमें राष्ट्रीय स्तर की सारी वैधानिक, संवैधानिक और कार्यकारी नियुक्तियां केंद्र सरकार के जरिए होती हैं। अमेरिका की तरह किसी भी नियुक्ति को संसद से मंजूरी नहीं लेनी होती है। इसलिए अगर इस तर्क को मानें कि कोई व्यक्ति अप्वाइंटिंग ऑथोरिटी को कैसे चैलेंज कर सकता है तब तो केंद्र सरकार या प्रधानमंत्री, केंद्रीय मंत्रियों आदि के किसी भी काम पर कोई सवाल नहीं उठा सकेगा! मिसाल के तौर पर प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली समिति चुनाव आयुक्तों और मुख्य चुनाव आयुक्त को चुनती है तो क्या चुनाव के समय चुनाव आयोग उस कमेटी के सदस्यों के किसी भी आचरण पर सवाल नहीं उठा सकता है या उन्हें निर्देश नहीं दे सकता है?
यह सब संविधान की नर्सरी स्तर की पढ़ाई से समझा जा सकता है बाकी मास्टर्स करने के लिए संविधान पढऩा होगा और ऐतिहासिक न्यायिक मामलों के बारे में गहराई से जानना होगा। संविधान के पहले संशोधन के बारे में पढऩा होगा, 24, 25वें और 42 व 44वें संशोधन के बारे में विस्तार से पढऩा होगा। गोलकनाथ बनाम पंजाब सरकार, केशवानंद भारती बनाम केरल सरकार, मिनर्वा मिल्स बनाम भारत सरकार, एडीएम जबलपुर केस आदि के बारे में विस्तार से पढऩा होगा।
बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट और उसके चीफ जस्टिस पर किए जा रहे निजी हमले हों या संसद की सर्वोच्चता बताने वाले बयान हों इनका असल मकसद न्यायपालिका नाम की बाधा को रास्ते से दूर करना है। यह पूरी तरह से राजनीतिक मामला है। पहले इंदिरा गांधी की सरकार ने यह काम किया था। आज भाजपा के बहुत से नेता और मीडिया चैनल भी इंदिरा गांधी के बयान सुनवा रहे हैं कि उन्होंने न्यायपालिका और जजों के बारे में क्या क्या कहा है। भाजपा से यह पूछा जाना चाहिए कि इंदिरा गांधी ने जो कहा या किया था वह सही था या गलत?
अगर भाजपा की नजर में वह गलत था तो फिर आज उसकी मिसाल देने या उसी तरह का काम करने की क्या जरुरत है? भारत की संसदीय प्रणाली संविधान के सम्मान के आधार पर काम करती है। समय समय पर हुई बहसों और न्यायिक मामलों से कुछ परंपराएं बनी हैं और कुछ नियम स्थापित हुए हैं। सबको उनका पालन करना चाहिए। अगर सरकार को या भाजपा को लग रहा है कि न्यायपालिका में बहुत कमियां हैं तो उनको ठीक करने की पहल संसद के जरिए करनी चाहिए। सार्वजनिक रूप से न्यायपालिका और जजों को अपमानित करना इसका समाधान नहीं है।
(इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं)
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